चल तू अकेला!
तेरा आह्वान सुन कोई ना आए, तो तू चल अकेला,
चल अकेला, चल अकेला, चल तू अकेला!
तेरा आह्वान सुन कोई ना आए, तो चल तू अकेला,
जब सबके मुंह पे पाश..
ओरे ओरे ओ अभागी! सबके मुंह पे पाश,
हर कोई मुंह मोड़के बैठे, हर कोई डर जाय!
तब भी तू दिल खोलके, अरे! जोश में आकर,
मनका गाना गूंज तू अकेला!
जब हर कोई वापस जाय..
ओरे ओरे ओ अभागी! हर कोई बापस जाय..
कानन-कूचकी बेला पर सब कोने में छिप जाय…
Mai Sunya pe savar hoon by ZAKIR KHAN sahab
मैं शून्य पे सवार हूँ…
मैं शून्य पे सवार हूँ
बेअदब सा मैं खुमार हूँ
अब मुश्किलों से क्या डरूं
मैं खुद कहर हज़ार हूँ
मैं शून्य पे सवार हूँ
मैं शून्य पे सवार हूँ
उंच-नीच से परे
मजाल आँख में भरे
मैं लड़ रहा हूँ रात से
मशाल हाथ में लिए
न सूर्य मेरे साथ है
तो क्या नयी ये बात है
वो शाम होता ढल गया
वो रात से था डर गया
मैं जुगनुओं का यार हूँ
मैं शून्य पे सवार हूँ
मैं शून्य पे सवार हूँ
भावनाएं मर चुकीं
संवेदनाएं खत्म हैं
अब दर्द से क्या डरूं
ज़िन्दगी ही ज़ख्म है
मैं बीच रह की मात हूँ
बेजान-स्याह रात हूँ
मैं काली का श्रृंगार हूँ
मैं शून्य पे सवार हूँ
मैं शून्य पे सवार हूँ
हूँ राम का सा तेज मैं
लंकापति सा ज्ञान हूँ
किस की करूं आराधना
सब से जो मैं महान हूँ
ब्रह्माण्ड का मैं सार हूँ
मैं जल-प्रवाह निहार हूँ
मैं शून्य पे सवार हूँ
मैं शून्य पे सवार हूँ
– ज़ाकिर ख़ान (२९)
हाँ मै चाहता हूँ कि उन्हे खत लिखूँ और वो ठंड के धुंध सी उसमे घुल जाए।।
हाँ मै चाहता हूँ कि उन्हे खत लिखूँ
और वो ठंड के धुंध सी उसमे घुल जाए।।
चाहता हूँ कि हमारे इश्क़ को
टिंग-टिंग करते नोटिफिकेशन से न पढ़ा जाए,
बल्कि पूरे एहसास क साथ,
कभी बिस्तर पे,
कभी वो खिड़की के सामने वाली मेज़ पे
तोह कभी नाइट लैंप के नीचे छुपते-छुपाते पढ़ा जाए।।
हाँ मै चाहता हूँ कि उन्हे खत लिखूँ
और वो आईने मे तस्वीर सी उसमे घुल जाए।।
चाहता हूँ कि वो खत लिखूँ
जिसके शब्द व्हाट्सएप्प कि तरह फास्ट-फास्ट न हो,
बल्कि पूरे एहसास के साथ वो खत डाकिया तुझ तक लाये।।
येह खत बिन जज़बातों कि चुटुर-पुटुर की इमोजीस का न हो
बल्कि इस्के शब्द जज़बातों मे गोते खाते हो
और इन शब्दों से बयाँ करने वाला ये इश्क़
ज़ारा और लीवाइस सा रेडीमेड न हो
ये तो रेशम और पश्मीने के
महीम धागो से, रूओं से गुथा गया हो।।
हाँ मै चाहता हूँ कि उन्हे खत लिखूँ
और वो इबादत मे आस्था कि तरह उसमे घुल जाए।।
चाहता हूँ कि ये खत इश्क से भरा प्याला हो
और ये इश्क का प्याला इस बार ऐसे चढ़े
जैसे बड़े इकमिनान से पूर्णिमा की रात को,
चान्द शाम से रात तक अपने परवान में आता है।।
ये उस नशीले जाम कि तरह हो
जिसका सुरूर हल्के्-हल्के अगले खत तक बना रहे
ये उस तपश्या के जैसे हो
जो साधु, सन्त, महात्मा, मोन्क सुकून से करते है।।
हाँ मै चाहता हूँ कि उन्हे खत लिखूँ
और वो माटी कि खुश्बू सी उसमे घुल जाए।।
हाँ मै चाहता हूँ कि उन्हें खत लिखूँ
पूरे एहसास क साथ वो खत डाकिया उन तक लाये
जिसमे लिखी उनकी कोमल, चन्चल, अड़ीयल,
मोहक बातों को देखकर वो खुद भी बहक जाऐ
जिस्मे ज़िक्र हो सिर्फ उन लकीरों का,
मन्ज़रो का जो सिर्फ मैने ही देखे है।।
हाँ मै चाहता हूँ कि उन्हे खत लिखूँ
और वो सान्सो कि तपिश कि तरह उसमे घुल जाए।।
हाँ मै चाहता हूँ कि उन्हे खत लिखूँ
और शहद से मीठा उनका जवाब आए।।